
कास्था सद्नि सुन्दरेऽपि परितो, दन्दह्यमानेऽग्निभिः;
कायादौ तु जरादिभिः प्रतिदिनं, गच्छत्यवस्थान्तरम् ।
इत्याऽऽलोचयतो हृदि प्रशमिन:, शश्वद्विवेकोज्ज्वले;
गर्वस्याऽवसर: कुतोऽत्र घटते, भावेषु सर्वेष्वपि ॥88॥
सुन्दर घर भी जले चतुर्दिश, तो बचने की क्या आशा? ।
प्रतिदिन जर्जर होती काया, के टिकने की क्या आशा? ॥
अत: मुनीश्वर निर्मल उर में, नित विवेक से करें विचार ।
जाति ज्ञान कुल आदि विषय में, मद का अवसर कैसे आय? ॥
अन्वयार्थ : जो अत्यन्त मनोहर भी है, किन्तु जिसके चारों तरफ अग्नि जल रही है - ऐसे घर के जलने से बचने की, जिस प्रकार अंश मात्र भी आशा नहीं की जाती; उसी प्रकार जो शरीर, वृद्धावस्था से सहित है तथा प्रतिदिन एक अवस्था को छोड़ कर, दूसरी अवस्था को धारण करता रहता है - ऐसा शरीर सदाकाल रहेगा? इसका विश्वास कैसे हो सकता है? इस प्रकार विवेकपूर्वक निर्मल हदय में विचार करने वाले मुनि के समस्त पदार्थों में अभिमान करने का अवसर ही नहीं है; इसलिए मुनियों को सदा ऐसा ही ध्यान करना चाहिए ।