+ आर्जवधर्म और कुटिल मायाचाररूप अधर्म की तुलना -
(आर्या)
हृदि यत्तद्वाचि बहिः, फलति तदेवाऽऽर्जवं भवत्येतत् ।
धर्मो निकृतिरधर्मो, द्वाविह सुरसद्मनरकपथौ ॥89॥
जो मन में हो वही वचन में, वही क्रिया यह आर्जवधर्म ।
इनमें विकृति ही अधर्म है, धर्म-स्वर्ग-पथ-नरक-अधर्म ॥
अन्वयार्थ : मन में जो बात होवे, उसी को वचन से प्रकट करना चाहिए; ऐसा न हो कि मन में कुछ होवे तथा वचन से कुछ अन्य ही बोलें; इसे आचार्य आर्जवधर्म कहते हैं तथा मीठी बात करके दूसरे को ठगना, इसको अधर्म कहते हैं । इनमें से आर्जवधर्म से तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा अधर्म, नरक को ले जाने वाला होता है । इसलिए आर्जवधर्म के पालन करने वाले भव्य जीवों को किसी के साथ माया से व्यवहार कदापि नहीं करना चाहिए ।