+ उत्तम आर्जवधर्म से विरुद्ध मायाचार का दुष्ट फल -
(शार्दूलविक्रीडित)
मायित्वं कुरुते कृतं सकृदपि, च्छायाविघातं गुणेष्वाजातेय
र्मिनोऽर्जितेष्विह गुरु,-क्लेशैः समादिष्वलम् ।
सर्वे तत्र यदासतेऽतिनिभृता:, क्रोधादयस्तत्त्वत:;
तत्पापं बत येन दुर्गतिपथे, जीवश्चिरं भ्राम्यति ॥90॥
अति कष्टों से हुआ उपार्जित, जीवन भर का सद्-गुण-कोष ।
पूर्ण नष्ट हो जाता है यदि, एक बार हो माया-दोष ॥
क्रोधादिक सारे दुर्गुण ही, कपटभाव में छिपे रहें ।
माया से उत्पन्न पाप से, जीव चतुर्गति-भ्रमण करें ॥
अन्वयार्थ : यदि एक बार भी किसी के साथ मायाचारी की जाए तो यह मायाचारी, बड़ी कठिनता से संचय किए हुए अहिंसा, सत्य आदि मुनियों के गुणों को फीका कर देती है अर्थात् वे गुण आदरणीय नहीं रह पाते । उस मायारूपी मकान में नाना प्रकार के क्रोधादि शत्रु छिपे बैठे रहते हैं । उससे उत्पन्न हुए पाप से जीव, नाना प्रकार के दुर्गति-मार्गों में भ्रमण करता रहता है । इसलिए मुनिगण मायाचार को अपने पास भी फटकने न देवें ।