
स्वपरहितमेव मुनिभि:, मितममृतसमं सदैव सत्यं च ।
वक्तव्यं वचमथ, प्रविधेयं धीधनैर्मौनम् ॥91॥
निज-पर हितकर अमृत-सम, प्रिय परिमित-वचन सदैव कहें ।
पर-पीड़क कटु वचन तजें या, धी-धारी मुनि मौन रहें॥
अन्वयार्थ : उत्कृष्ट ज्ञान को धारण करने वाले मुनियों को प्रथम तो बोलना ही नहीं चाहिए । यदि बोलें तो ऐसा वचन बोलना चाहिए, जो समस्त प्राणियों का हित करने वाला हो, परिमित हो, अमृत के समान प्रिय हो और सर्वथा सत्य हो; किन्तु जो वचन, जीवों को पीड़ा देने वाला और कड़वा हो, उस वचन की अपेक्षा मौन-साधना ही अच्छा है ।