+ उत्तम शौचधर्म हेतु बाह्य की अपेक्षा अन्त:करण की शुद्धि अनिवार्य -
(शार्दूलविक्रीडित)
गंगासागरपुष्करादिषु सदा, तीर्थेषु सर्वेष्वपि;
स्नातस्याऽपि न जायते तनुभृतः, प्रायो विशुद्धिः परा ।
मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि मनो, बाह्येऽतिशुद्धोदकै:;
धौतं किं बहुशोऽपि शुद्ध्यति सुरा,-पूरप्रपूर्णो घटः ॥95॥
गंगा-सागर पुष्करादि, तीर्थों में यदि स्नान करें ।
किन्तु विशुद्धि न मन में हो तो, प्राणी सदा अशुद्ध रहें ॥
मिथ्यात्वादि मलों से मैला, मन हो शुद्ध कहो कैसे? ।
मद्य भरा घट शुचि कैसे हो, कितना भी धोएँ जल से ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार अत्यन्त घृणित मद्य से भरा हुआ घड़ा यदि बहुत बार शुद्ध जल से धोया भी जाए तो वह शुद्ध नहीं हो सकता; उसी प्रकार जो मनुष्य, बाह्य में गंगा-पुष्कर आदि तीर्थों में स्नान करने वाला है, किन्तु उसका अन्तःकरण नाना प्रकार के क्रोधादि कषायों से मलीमस (मलिन) है तो वह कदापि उत्कृष्ट शुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए मनुष्य को सबसे पहले अपने अन्तःकरण को शुद्ध करना चाहिए क्योंकि जब तक अन्तःकरण शुद्ध न होगा, तब तक सर्व बाह्य क्रियाएँ व्यर्थ हैं ।