
जन्तुकृपार्दितमनसः, समितिषु साधोः प्रवर्तानस्य ।
प्राणेन्द्रियपरिहारं, संयममाहु र्हामुनयः ॥96॥
जीव-दया से भीगा मन हो, पञ्च समिति में हो वर्तन ।
इन्द्रिय-विषय तथा हिंसा का, त्याग कहें मुनिवर संयम ॥
अन्वयार्थ : जिसका चित्त, जीवों की दया से भीगा हुआ है, जो ईर्या-भाषा-एषणा आदि पाँच समितियों का पालन करने वाला है - ऐसे साधु के जो षट्काय के जीवों की हिंसा तथा इन्द्रियों के विषयों का त्याग है, उसी को गणधरादि देव संयमधर्म कहते हैं ।