+ उत्तम संयमधर्म की उत्तरोत्तर दुर्लभता -
(शार्दूलविक्रीडित)
मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृत:, तत्रापि जात्यादयः;
तेष्वेवाप्तवचः श्रुतिः स्थितिरत:, तस्याश्च दृग्बोधने ।
प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि परं, स्यातां न येनोज्झिते;
स्वर्माेक्षैकफलप्रदे स च कथं, न श्लाघ्यते संयमः ॥97॥
यह नरभव मिलना दुर्लभ है, उसमें दुर्लभ उत्तम जाति ।
आप्त वचन सुनना दुर्लभ है, उसमें भी दुर्लभ दीर्घायु ॥
ये सब होवें प्राप्त किन्तु, दुर्लभ है सम्यग्दर्शन-ज्ञान ।
इनसे भी अति दुर्लभ संयम, क्यों न प्रशंसा करें सुजान ?
अन्वयार्थ : प्रथम तो इस संसाररूपी गहन वन में भ्रमण करते हुए प्राणियों का मनुष्य होना ही अत्यन्त कठिन है, किन्तु किसी कारण से मनुष्य जन्म प्राप्त भी हो जाए तो उत्तम ब्राह्मणादि जाति मिलना अति दुःसाध्य है । यदि किसी प्रबल दैवयोग से उत्तम जाति भी मिल जाए तो अर्हन्त भगवान के वचनों का सुनना बड़ा दुर्लभ है । यदि उनके सुनने का भी सौभाग्य प्राप्त हो जाए तो संसार में अधिक जीवन नहीं मिलता । यदि अधिक जीवन भी मिले तो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होना अति कठिन है । यदि किसी पुण्य के उदय से अखण्ड तथा निर्मल सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति भी हो जाए तो संयमधर्म के बिना वे स्वर्ग तथा मोक्षरूपी फल के देनेवाले नहीं हो सकते । इसलिए संयम सबसे अधिक प्रशंसनीय है, अतः संयमियों को ऐसे संयम की अवश्य रक्षा करनी चाहिए ।