+ उत्तम तपधर्म : द्वादश विध सुखदाय, क्यों न करें निज शक्ति-सम -
(आर्या)
कर्मलविलयहेतो:, बोधदृशा तप्यते तपः प्रोक्तम् ।
तद्द्वेधा द्वादशधा, जन्माम्बुधियानपात्रमिदम् ॥98॥
ज्ञान-नेत्र-धारी साधु जो, कर्मक्षय के हेतु तपें ।
दो अथवा बारह प्रकार तप, भव-सागर से पार करें ॥
अन्वयार्थ : सम्यग्ज्ञानरूपी दृष्टि से भले प्रकार वस्तु के स्वरूप को जान कर, ज्ञानावरणादि कर्मल के नाश की बुद्धि से जो तप किया जाता है, वही तपधर्म कहा गया है । वह तप मूल में बाह्य व अभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है ।
1. अनशन, 2. अवमौदर्य, 3. वृत्ति-परिसंख्यान, 4. रस-परित्याग, 5. विविक्त-शय्यासन 6. कायक्लेश - इस रीति से छह प्रकार का बाह्य तथा 1. प्रायश्चित्त, 2. विनय, 3. वैयावृत्त्य, 4. स्वाध्याय, 5. व्युत्सर्ग 6. ध्यान - इस रीति से छह प्रकार का अभ्यन्तर; इस प्रकार तप के बारह भेद भी हैं । वह तप, संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए जहाज के समान है अर्थात् मोक्ष को देनेवाला है ।