
कषायविषयोद्भट,-प्रचुरतस्करौघो हठात्;
तपः सुभटताडितो, विघटते यतो दुर्जयः ।
अतो हि निरुपद्रव:,चरति तेन धर्मश्रिया;
यति: समुपलक्षितः, पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम् ॥99॥
विषय-कषायरूप तस्कर हों, उद्धत और महाबलवान् ।
किन्तु सुभट तप-सन्मुख हो तो, तत्क्षण ही होते निष्प्राण ॥
धर्मरूप लक्ष्मी से शोभित, योगी तप-योद्धा के संग ।
शिवपुर-पथ में गमन करें वे, अति सुख से होकर नि:शंक ॥
अन्वयार्थ : यद्यपि क्रोधादि कषायरूपी उद्धत तथा प्रबल चोरों का समूह दुर्जय है अर्थात् साधारण रीति से जीतने में नहीं आ सकता तो भी जिस समय तपरूपी प्रबल योद्धा, उसके सामने आता है, उस समय उसकी कुछ भी तीनपाँच नहीं चलती अर्थात् बात ही बात में वह जीत लिया जाता है; इसलिए जो योगीश्वर, तपरूपी सुभट के साथ धर्मरूपी लक्ष्मी से युक्त हैं, वे मोक्षरूपी नगर के मार्ग में निरुपद्रव तथा सुख से चले जाते हैं ।