
मिथ्यात्वादे:, यदिह भविता, दुःखमुग्रं तपोभ्यो;
जातं तस्मादुदककणिकैकेव सर्वाब्धिनीरात् ।
स्तोकं तेन, प्रभवमखिलं, कृच्छ्रलब्धे नरत्वे;
यद्येतर्हि, स्खलति तदहो, का क्षतिर्जीव ते स्यात् ॥100॥
मिथ्यात्वादिक से नरकों में, होते हैं जो दु:ख महान ।
तप से होने वाले दु:ख कुछ, नहीं जलधि की बूँद समान ॥
महाकष्ट से नर-तन पाया, तप से होते सब गुण प्राप्त ।
किन्तु यदि चूके तो मानो! हो जाता है सब कुछ घात ॥
अन्वयार्थ : हे जीव! जिस प्रकार समस्त समुद्र की अपेक्षा जल का कण अत्यन्त छोटा होता है, उसी प्रकार तप के करने से तुझे बहुत थोड़े दुःख का अनुभव करना पड़ता है; किन्तु जिस समय मिथ्यात्व के उदय से तू नरक जाएगा, उस समय तुझे नाना प्रकार के छेदन-भेदन आदि असह्य दुःखों का सामना करना पड़ेगा तो भी तू न जाने तप से क्यों भयभीत होता है? अरे! तेरी तप करने में क्या हानि है?