+ उत्तम त्यागधर्म में मुनियों को देने योग्य दान की मुख्यता -
(शार्दूलविक्रीडित)
व्याख्या या क्रियते श्रुतस्य यतये, यद्दीयते पुस्तकं;
स्थानं संयमसाधनादिकमपि, प्रीत्या सदाचारिणा ।
स त्यागो वपुरादिनिर्म तया, नो किंचनास्ते यते:;
आकिंचन्यमिदं च संसृतिहरो, धर्मः सतां सम्मतः ॥101॥
श्रुत की व्याख्या करना एवं, निर्ग्रन्थों को ग्रन्थ-प्रदान ।
प्रीतिसहित यति को दे संयम-साधन, यह श्रावक का दान ॥
'किञ्चित् भी नहिं मेरा' - ऐसा, हो विचार तन से निर्मम ।
आकिञ्चन्यधर्म यह भव-नाशक है श्रेष्ठ कहें सज्जन ॥
अन्वयार्थ :  शास्त्रों का भलीभाँति व्याख्यान करना तथा मुनियों को पुस्तक, स्थान और संयम-शौच आदि के साधन, पीछी-कमण्डलु आदि देना, सदाचारियों का उत्कृष्ट त्यागधर्म है । 'मेरा कुछ भी नहीं है' - ऐसा विचार कर, अत्यन्त निकट शरीर से भी ममता छोड़ देना, आकिञ्चन्य धर्म है, वह यतियों को होता है, वह समस्त संसार का नाश करने वाला है और समस्त श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा आदरणीय है ।