+ उत्तम त्यागधर्म के धारकों की महिमा -
(शिखरिणी)
विमोहा मोक्षाय, स्वहितनिरताश्चारुचरिताः;
गृहादि त्यक्त्वा ये, विदधति तपस्तेऽपि विरलाः ।
तपस्यन्तोऽन्यस्मिन्नपि यमिनि शास्त्रादि ददतः;
सहायाः स्युर्ये ते, जगति यतयो दुर्लभतराः ॥102॥
निर्मोही हो चारु चरित-धर, निज-हित में ही लीन रहें ।
मोक्षहेतु गृह-त्याग करें तप, ऐसे साधु विरले हैं ॥
स्वयं तपें तप अन्य मुनी को, शास्त्रादिक दे करें सहाय ।
दुर्लभ से दुर्लभ हैं ऐसे, मुनिवर जो जग को सुखदाय ॥
अन्वयार्थ : जिनका मोह सर्वथा गल गया है, जो अपने आत्मा के हित में ही निरन्तर लगे रहते हैं, जो सुन्दर चारित्र के धारण करने वाले हैं तथा घर, स्त्री, पुत्रादि को छोड़ कर, मोक्ष के लिए तप करते हैं, वे मुनि, संसार में विरले ही हैं । जो स्वतः अपने हित के लिए तप करने वाले हैं, दूसरे तपस्वियों के लिए शास्त्रादिक का दान करते हैं और उनके सहायी भी हैं - ऐसे योगीश्वर, संसार के बीच में अत्यन्त दुर्लभ हैं, वे बड़ी कठिनाई से मिलते हैं ।