
परं मत्वा सर्वं, परिहृतमशेषं श्रुतविदा;
वपुः पुस्ताद्यास्ते, तदपि निकटं चेदिति मति: ।
ममत्वाभावे तत्, सदपि न सदन्यत्र घटते;
जिनेन्द्राज्ञाभंगो, भवति च हठात् कल्मषमृषेः ॥103॥
सर्व परिग्रह भिन्न जान कर, ज्ञानी मुनि ने त्याग किया ।
किन्तु देह अरु शास्त्र निकट हैं, क्यों नहिं उनका त्याग किया ?
उनमें नहीं ममत्व अत: वे, सत् हैं किन्तु असत्-वत् जान ।
यदि ममत्व हो तो जिन-आज्ञा-उल्लंघन का पाप महान ॥
अन्वयार्थ : समस्त शास्त्रों को जानने वाले वीतरागदेव ने अपनी आत्मा से समस्त वस्तुओं को भिन्न जान कर सबका त्याग कर दिया है । यदि कहोगे कि सबको छोड़ते समय उन्होंने शरीर, पुस्तकादि का त्याग क्यों नहीं किया? तो उसका समाधान यह है कि उनकी शरीरादि में भी किसी प्रकार की ममता नहीं रही है; इसलिए वे मौजूद होते हुए भी नहीं मौजूद की तरह ही हैं अर्थात् मुनियों के शरीरादि का साथ, आयुकर्म का नाश हुए बिना छूट नहीं सकता यदि वे उन शरीरादि को बीच में ही छोड़ देवें तो उनको प्राणघात करने के कारण हिंसा का भागी होना पड़ेगा; इसलिए उनके शरीरादि तो रहते हैं, किन्तु वे शरीरादि में किसी प्रकार का ममत्व नहीं रखते । यदि वे शरीरादि में किसी प्रकार का ममत्व करें तो उनको जिनेन्द्र की आज्ञा-भंग करनेरूप महान दोष का भागी होना पड़ेगा अर्थात् जब तक उनको ममत्व रहेगा, तब तक वे मुनि ही नहीं कहे जा सकते हैं ।