
यत्संगाधारमेतत् चलति लघु च यत्, तीक्ष्णदुःखौघधारं;
मृत्पिण्डीभूतं, कृतबहुविकृति,-भ्रान्तिसंसारचक्रम् ।
ता नित्यं यन्मुुक्षु:, यतिरमलमतिः, शान्तमोहः प्रपश्येत्;
जामी: पुत्रीः सवित्रीरिव हरिणदृश:, तत्परं ब्रह्मचर्य् ॥104॥
जिसका संग अधिकरण जगत् का, तीव्र दु:खों की पैनी धार ।
प्राणी भ्रमते मृत-पिण्डीवत्, पर्यायें धर विविध प्रकार ॥
उस नारी को जो मुमुक्षु यति,लखें मोह को कर उपशान्त ।
माता-बहन-सुता-सम वे ही, पाते हैं व्रत ब्रह्म परम ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार कुम्भकार का चाक, जमीन के आधार से चलता है, उस चाक की तीक्ष्ण धारा रहती है, उसके ऊपर मिट्टी का पिण्ड भी रहता है तथा वह चाक, नाना प्रकार के कुसूल, स्थास आदि घट के विकारों को करता है; उसी प्रकार संसाररूपी चाक की आधार यह स्त्री है अर्थात् यह स्त्री न होती तो यह जीव, कदापि संसार में भटकता न फिरता ।