
वैराग्यत्यागदारु,-कृतरुचिरचना, चारुनि:श्रेणिका यैः;
पादस्थानैरुदारै:, दशभिरनुगता, निश्चलैर्ज्ञानदृष्टेः ।
योग्या स्यादारुरुक्षोः, शिवपदसदनं, गन्तुमित्येषु केषां;
नो धर्मेषु त्रिलोकी-पतिभिरपि सदा, स्तूयमानेषु हृष्टि: ॥106॥
त्याग-विराग काष्ठ-खण्डों से बनी हुई उत्तम सीढ़ी ।
क्षमा आदि दस पाद-स्थल युत, मोक्षमहल को है जाती ॥
मुक्ति-कामिनी वाञ्छक नर को, यही नसैनी योग्य कही ।
सुरपति से उन वन्द्य धर्म दश, धरने में नहीं हर्ष किसे ?
अन्वयार्थ : जिसके इधर-उधर वैराग्य तथा त्यागरूपी मनोहर काष्ठ लगे हुए हैं, जिसमें बड़े-बड़े मजबूत दश धर्मरूपी पाद-स्थान मौजूद हैं - ऐसी सीढ़ी मोक्षरूपी महल पर चढ़ने की इच्छा करने वाले मनुष्य को चढ़ने के लिए योग्य है क्योंकि जो तीन लोक के पति इन्द्रादिकों से वन्दनीक हैं - ऐसे उन दश धर्मों के धारण करने में किसको हर्ष नहीं होता है ?