+ अनन्त चतुष्टयस्वरूप स्वस्थता को नमस्कार -
(शार्दूलविक्रीडित)
निःशेषामलशीलसद्गुणमयी,-मत्यन्तसाम्यस्थितां;
वन्दे तां परमात्मनः प्रणयिनीं, कृत्यान्तगां स्वस्थताम् ।
यत्राऽनन्तचतुष्टयाऽमृत-सरित्याऽऽत्मानमन्तर्गतं;
न प्राप्नोति जरादिदु:सहशिख:, संसारदावानल: ॥107॥
रहें सदा समभावों में जो, निर्मलशील-गुणों की खान ।
आत्म-प्रीतिकर कर्त्तव्यान्तक, आत्मलीनता धर्म महान ॥
जो ज्ञानादि चतुष्टय अमृत,-सरिता में स्नान करें ।
जन्म-जरा-दु:ख दावानल भी, उन्हें दु:खी नहिं कर सकते ॥
अन्वयार्थ : समस्त निर्मल शीलगुण स्वरूप, सर्वथा समतारूप अवस्था में होने वाली, उत्कृष्ट आत्मा से प्रीति कराने वाली, जिसके होने पर किसी प्रकार का कर्तव्य बाकी नहीं रहता - ऐसी स्वस्थता को मैं नमस्कार करता हूँ क्योंकि अनन्त विज्ञानादि अनन्त चतुष्टय-स्वरूप, स्वस्थतारूपी अमृत नदी के भीतर रहने वाली आत्मा को जरा आदि दुःसह शिखा को धारण करने वाला संसाररूपी बड़वानल प्राप्त नहीं हो सकता ।