+ अनेक प्रकार के आनन्द को उत्पन्न करने वाले चैतन्य को मेरा नमस्कार! -
आयातेऽनुभवं भवारिमथने, निर्मुक्तमूर्त्याऽऽश्रये;
शुद्धेऽन्यादृशि सो सूर्यहुतभुक्,-कान्तेरनन्तप्रभे ।
यस्मिन्नस्तमुपैति चित्रमचिरात्, निःशेषवस्त्वन्तरं;
तद्वन्दे विपुल-प्रमोद-सदनं, चिद्रूपमेकं मह: ॥108॥
जो भवारि-नाशक है अनुभवगम्य देह बिन है अनुपम ।
सूर्यादिक से अधिक प्रभामय, अन्य ज्ञान से रहे अगम ॥
जिसमें अस्त समस्त पराश्रित, आकुलतामय विविध विकल्प ।
विपुल प्रमोद सदन चेतनमय, 'तेजपुञ्ज' को करूँ नमन ॥
अन्वयार्थ : समस्त कर्मादि वैरियों का नाश करने वाला, शरीर आदि के आश्रय से रहित (जिसको किसी प्रकार के शरीर आदि का आश्रय नहीं है), जो शुद्ध है, दूसरे के प्रत्यक्षज्ञान के अगोचर है तथा चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि से भी अनन्तगुनी प्रभा को धारण करने वाला है, जिस चैतन्यस्वरूप उत्कृष्ट तेज के अनुभव होने पर बात ही बात में समस्त पर-पदार्थों का विकल्प अस्त हो जाता है - ऐसे अनेक प्रकार के प्रमोद (आनन्द) को पैदा करने वाले उस चैतन्यस्वरूप तेज को मैं सिर झुका कर नमस्कार करता हूँ ।