+ अविनाशी सिद्ध भगवान को मेरा नमस्कार ! -
जातिर्याति न यत्र यत्र च मृतो, मृत्युर्जरा जर्जरा;
जाता यत्र न कर्मकायघटना, नो वाग् न च व्याधयः ।
यत्राऽऽत्मैव परं चकास्ति विशद,-ज्ञानैकमूर्तिः प्रभु:;
नित्यं तत्पदमाश्रिता निरुपमाः, सिद्धाः सदा पान्तु वः ॥109॥
जहाँ न जन्मे जन्म, मृत्यु भी मरी, जरा भी जीर्ण हुई ।
जहाँ न वाणी-व्याधि नहीं, तन-कर्मों का सम्बन्ध नहीं ॥
निर्मल ज्ञान-मूर्ति प्रभु आतम, सदा प्रकाशित होता है ।
शिवपद आश्रित शाश्वत अनुपम, सिद्ध शरण हम लेते हैं ॥
अन्वयार्थ : जहाँ पर न जन्म है, न मरण है, न जरा है; न कर्मों और न शरीर का सम्बन्ध है; न वाणी है और न रोग है, जहाँ पर निर्मल ज्ञान का धारण करने वाला प्रभु आत्मा, सदा प्रकाशमान है - ऐसे उस अविनाशी पद में रहने वाले उपमारहित (जिनको किसी की उपमा ही नहीं दे सकते - ऐसे) सिद्ध भगवान मेरी रक्षा करें (ऐसे सिद्धों की मैं शरण लेता हूँ)