+ अमूर्तिक चैतन्यस्वरूपी आत्मा के बारे में कुछ कहने की प्रतिज्ञा -
दुर्लक्ष्येऽपि चिदात्मनि श्रुतबलात्, किञ्चित्स्वसंवेदनात्;
ब्रूः किंचिदिह प्रबोधनिधिभि:,-ग्राह्यं न किञ्चिच्छलम् ।
मोहे राजनि कर्मणामतितरां, प्रौढान्तराये रिपौ;
दृग्बोधावरणद्वये सति मति:, तादृक्कुतो मादृशाम् ॥110॥
दृष्टि-अगोचर है तथापि, श्रुतबल से या निज अनुभव से ।
कहूँ आत्मा का स्वरूप, विद्वान् न समझें छल इसमें ॥
कर्म-शत्रु का नृपति मोह है, अन्तराय भी महासुभट ।
ज्ञान-दर्शनावरण संग हैं, कैसे मेरी मति उत्कृष्ट ?
अन्वयार्थ : जिस प्रकार अमूर्तिक होने के कारण आकाश आदि किसी के द्वारा देखे नहीं जा सकते, उसी प्रकार यद्यपि यह आत्मा किसी के द्वारा दृष्टिगोचर नहीं है तो भी उस चैतन्य-स्वरूप आत्मा के स्वरूप का शास्त्र के बल से अथवा अपने अनुभव से मैं वर्णन करता हूँ । इसलिए बुद्धिमानों को इसमें किसी प्रकार की दगाबाजी नहीं समझनी चाहिए क्योंकि समस्त कर्मों का राजा मोहनीय, अत्यन्त प्रबल अन्तरायरूपी कर्मशत्रु तथा ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म, अभी मेरी आत्मा के साथ लगे हुए हैं; इसलिए वास्तविक स्वरूप के कहने में मेरी बुद्धि कैसे प्रवीण हो सकती है ?