
विद्वन्मन्यतया सदस्यतितरा,-मुद्दण्डवाग्डम्बराः;
शृंगारादिरसैः प्रमोदजनकं, व्याख्यानमातन्वते ।
ये ते च प्रतिसद्म सन्ति बहवो, व्यामोहविस्तारिणो;
येभ्यस्तत्परमात्मतत्त्वविषयं, ज्ञानं तु ते दुर्लभाः ॥111॥
अपने को विद्वान् मान कर, वचनों के आडम्बर से ।
श्रंगारादि रसों से आनन्द-दायक सम्बोधन करते ॥
जन-जन को सन्मार्ग दिखाने वाले हैं नर बहुतेरे ।
परम तत्त्व बतलाने वाले, बड़ी कठिनता से मिलते ॥
अन्वयार्थ : अपने को विद्वान् मान कर, शृंगारादि रस सहित नाना प्रकार के प्रमोदजनक व्याख्यानों को कहने वाले, सभा में व्यर्थ वचनों के आडम्बर को धारण करने वाले और मनुष्यों को सन्मार्ग से भुलाने वाले पुरुष, संसार में घर-घर में बहुत मिलेंगे; परन्तु जो परमात्मतत्त्व का ज्ञान देने वाले हैं, ऐसे मनुष्य बड़ी कठिनाई से मिलते हैं ।