+ वीतरागता-पोषक शास्त्राभ्यास की महिमा -
आपद्धेतुषु रागरोषनिकृति,-प्रायेषु दोषेष्वलं;
मोहात्सर्वजनस्य चेतसि सदा, सत्सु स्वभावादपि ।
तन्नाशाय च संविदे च फलवत्, काव्यं कवेर्जायते;
शृंगारादिरसं तु सर्वजगतो, मोहाय दुःखाय च ॥112॥
मोहोदय से राग-द्वेष माया एवं लोभादिक दोष ।
प्राय: सबके चित् में स्वाभाविक रहते देखे दु:ख-कोष ॥
काव्य वही है फलदायक जो, इन दोषों का करें विनाश ।
शृंगारादिक रस तो सबके, मोह और दु:खमय आवास ॥
अन्वयार्थ : समस्त मनुष्यों के चित्त में नाना प्रकार के दुःख देने वाले राग, द्वेष, माया, क्रोध, लोभ आदि दोष, स्वभाव से ही रहे आते हैं; इसलिए जिस कवि का काव्य, उनको मूल से उड़ाने वाला तथा सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करने वाला होता है; वास्तव में वही कार्यकारी समझना चाहिए अर्थात् जिसमें वीतरागता का वर्णन होवे, वही काव्य, फल का देने वाला है । शृंगारादि रस तो समस्त जगत् को मोह उत्पन्न करने वाले तथा दुःख देने वाले हैं; इसलिए भव्यों को चाहिए कि वे वीतराग भाव को दर्शाने वाले शास्त्रों का ही अभ्यास करें ।