+ रागवर्द्धक शृंगारपोषक शास्त्रों की निन्दा -
(वसन्ततिलका)
कालादपि प्रसृतमोह,-महाऽन्धकारे;
मार्गं न पश्यति जनो, जगति प्रशस्तम् ।
क्षुद्राः क्षिपन्ति दृशि दुःश्रुतिधूलिमस्य;
न स्यात्कथं गतिरनिश्चितदुःपथेषु ॥113॥
मोह महातम व्याप्त जगत् में, प्राणी देख सकें न सुमार्ग ।
दुष्ट फेंकते धूल दु:श्रुति तो फिर क्यों नहीं चलें कुमार्ग ?
अन्वयार्थ : अनादि काल से फैले हुए मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त इस जगत् में बेचारे मोही जीव, एक तो स्वयमेव ही श्रेष्ठ मार्ग को नहीं देख सकते; यदि किसी रीति से देख भी सकें तो दुष्ट पुरुष उनकी आँखों में शृंगारादि शास्त्र सुना कर धूलि डालते हैं, इसलिए वे जीव, कहाँ तक खोटे मार्ग में गमन नहीं करें ?