+ स्त्री का रूप, अन्य समस्त दोषों से भयंकर -
(शार्दूलविक्रीडित)
येनेदं जगदापदम्बुधिगतं, कुर्वीत मोहो हठात्;
येनैते प्रतिजन्तु हन्तुनसः, क्रोधादयो दुर्जयाः ।
येन भ्रातरियं च संसृतिसरित्, संजायते दुस्तरा;
तज्जानीहि समस्तदोषविषमं, स्त्रीरूपमेतद्ध्रुवम् ॥117॥
जिसके द्वारा मोह जगत् को, दु:ख-समुद्र में डुबा रहा ।
जिससे क्रोधादिक शत्रु भी, जीव-घात में तत्पर हा !
जिसके कारण संसृति-सरिता, हो जाती है यहाँ अथाह ।
हे भ्राता! यह नारीरूप, सब दोषों में ज्येष्ठ कहा ॥
अन्वयार्थ : जिस स्त्री के रूप की सहायता से मोह, जबर्दस्ती मनुष्य को नाना प्रकार के दुःख देता है, उसी रूप की सहायता से समस्त जीवों के नाशक, क्रोधादि कषाय दुर्जय हो जाते हैं, उसी रूप की सहायता से संसाररूपी नदी तिरी नहीं जा सकती, बल्कि वह अथाह हो जाती है; इसलिए हे भव्यों! उस स्त्री के रूप को समस्त दोषों से भी भयंकर समझो ।