+ इन्द्रिय-विषयों के जाल में फँसने वाले जीवों की मूर्खता -
मोहव्याधभटेन संसृतिवने, मुग्धैणबन्धाऽपदे;
पाशाः पंकजलोचनादिविषयाः, सर्वत्र सज्जीकृताः ।
मुग्धास्तत्र पतन्ति तानपि वरा,-नास्थाय वाछन्त्यहो;
हा कष्ट ं परजन्मनेऽपि न विदः, क्वापीति धिङ् मूर्खताम् ॥118॥
मोह-व्याध-भट इस भव-वन में, मूढ़ों को बन्धन दु:खकार ।
नेत्रादिक इन्द्रिय-विषयों का, जाल बिछा कर फँसा रहा ॥
श्रेष्ठ जान कर इन्हें मूढ़जन, पर-भव में भी चाह करें ।
धिक् है इनका मूढ़पना पर, ज्ञानी इनमें नहीं फँसे ॥
अन्वयार्थ : इस संसार-वन में भोले जीवरूपी मृगों को बाँध कर, दुःख देने के लिए मोहरूपी सुभट चिड़ियामार ने सब जगह लोचनादि विषयरूपी जाल फैला रखे हैं; उसी प्रकार इन्द्रिय-विषयरूपी जालों को श्रेष्ठ मान कर, भोले जीव उनमें आकर फँस जाते हैं, यह बड़े दुःख की बात है; किन्तु आत्मा के स्वरूप को जानने वाले विद्वान्, स्वप्न में भी उन जालों में नहीं फँसते और परलोक के लिए भी उन विषयों को हितकारी नहीं समझते; इसलिए उन भोले जीवों की मूर्खता के लिए धिक्कार है ।