
एतन्मोह-ठक-प्रयोग-विहित,-भ्रान्ति-भ्रमच्चक्षुषा;
पश्यत्येष जनोऽसमंजसमसद्,-बुद्धिर्ध्रुवं व्यापदे ।
अप्येतान्विषयाननन्त-नरक,-क्लेश-प्रदान-स्थिरान्;
यत् शश्वत्सुखसागरानिव सत:,चेतः प्रियान् मन्यते ॥119॥
मोहरूप ठग के प्रयोग से, इसकी दृष्टि हुई भ्रमरूप ।
विषयों को सुखरूप मान कर, भोगे निश्चित कष्ट अनूप ॥
अस्थिर विषय भोग नरकों में, दु:ख अनन्त देने वाले ।
किन्तु मूढ़-मन को वे सुख-सागर-सम प्रिय लगने वाले ॥
अन्वयार्थ : यह कुबुद्धि मनुष्य, मोहरूपी ठग के प्रयोग से उत्पन्न हुए भ्रम से भ्रान्त नेत्रों से विपरीत ही देखता है और विपरीत देखने से नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है तो भी अनन्त नरकों के दुःखों को देने वाले और बिजली के समान चंचल - इन विषयों को स्थिर, निरन्तर सुख को देने वाले औेर चित्त को प्रिय मानता है ।