
संसारेऽत्र घनाटवीपरिसरे, मोहष्ठकः कामिनी-;
क्रोधाद्याश्च तदीयपेटकमिदं, तत्सन्निधौ जायते ।
प्राणी तद्विहितप्रयोगविकलः, तद्वश्यतामागतो;
न स्वं चेतयते लभेत विपदं, ज्ञातुः प्रभोः कथ्यताम् ॥120॥
इस संसार महा अटवी-परिसर में महामोह ठग है ।
जीवों को ठगने की सामग्री क्रोधादि समीप रहे ॥
मोह-मन्त्र से प्राणी उसके, वश में व्याकुल होते हैं ।
निज को जाने बिन दु:ख पाते, अत: जिनेश्वर शरण गहें ॥
अन्वयार्थ : इस संसाररूपी विस्तीर्ण वन में ठग तो मोह है और स्त्री, क्रोध-मान-माया आदि उसके पास प्राणियों को ठगने की सामग्री है । प्राणी, उसके प्रयोग में विकल होकर उसके आधीन पड़े रहते हैं । अपने स्वरूप को भी नहीं जानते हैं तथा नाना प्रकार की आपत्तियों को सहते हैं; इसलिए हे जीव! तुझे उस ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा तथा श्री सर्वज्ञदेव का ही आश्रय करना चाहिए ।