
ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशनतया, मूढा हि ये कुर्वते;
सर्वेषां टिरिटिल्लितानि पुरतः, पश्यन्ति नो व्यापदः ।
विद्युल्लोलमपि स्थिरं परमपि, स्वं पुत्रदाराऽदिकं;
मन्यन्ते यदहो तदत्र विषमं, मोहप्रभो: शासनम् ॥121॥
ऐश्वर्यादि प्रकाशन हेतु, मूढ़ करें पर का उपहास ।
कहें दुर्वचन किन्तु नहीं, देखें नरकादि विपत्ति पास ॥
भिन्न तथा चञ्चल पुत्रादिक, को अपना अरु धु्रव मानें ।
मोह-चक्रवर्ती की ही यह, आज्ञा महा विषम जानें ॥
अन्वयार्थ : मैं लक्ष्मीवान हूँ, मैं ज्ञानवान हूँ, इत्यादि अपने गुणों को मूढ पुरुष प्रकाशित करते हैं, समस्त पुरुषों के सामने नाना प्रकार की गालियों को बकते हैं, किन्तु आने वाली नरकादि विपत्तियों पर कुछ भी ध्यान नहीं देते । बिजली के समान चञ्चल पुत्र-स्त्री आदि को स्थिर मानते हैं और अपने से भिन्न होने पर भी उनको अपना मानते हैं; इसलिए मोह-चक्रवर्ती की आज्ञा बड़ी कठोर है ।