
क्व यामः किं कुर्मः, कथमिह सुखं किं च भविता;
कुतो लभ्या लक्ष्मीः, क इह नृपतिः सेव्यत इति ।
विकल्पानां जालं, जडयति मनः पश्यत सतां;
अपि ज्ञातार्थानामिह, महदहो मोहचरितम् ॥122॥
जाएँ कहाँ? करें क्या हम? अरु कैसे सुख हो यही विचार ।
कैसे लक्ष्मी प्राप्त करें, किस राजा की आज्ञा उर धार ?
वस्तुतत्त्व के ज्ञाताजन को, भी हों जाल-विकल्प अहो !
मन को जड़ कर देता हैं यह, मोह-चरित आश्चर्य अहो !!
अन्वयार्थ : हम कहाँ जाएँ? क्या करें? कैसे सुखी हों? किस रीति से लक्ष्मी प्राप्त करें? किस राजा की सेवा-टहल करें? इत्यादि नाना प्रकार के विकल्पों के समूह, संसार में प्राणियों को उत्पन्न होते रहते हैं, भले प्रकार वस्तु के स्वरूप को जानने वाले मनुष्यों के मन को जड़ बना देते हैं - यह प्रत्यक्षगोचर है; इसलिए मोह का चरित्र बड़ा आश्चर्यकारी है ।