+ वीतराग-सर्वज्ञ का वचन ही प्रमाणभूत -
(स्रग्धरा)
वाचस्तस्य प्रमाणं, य इह जिनपतिः, सर्वविद्वीतरागो;
रागद्वेषाऽदिदोषै:, उपहतमनसो, नेतरस्याऽनृतत्वात् ।
एतन्निश्चित्यचित्ते, श्रयत बत बुधा, विश्वतत्त्वोपलब्ध्यै;
मुर्क्तेूलं तमेकं, भ्रमति किमु बहुष्वन्धवद् दुष्पथेषु ॥124॥
वीतराग-सर्वज्ञ जिनेश्वर, के ही वचन प्रमाण कहें ।
रागी अरु अल्पज्ञ वचन हैं, असत् अत: अप्रामाणिक हैं ॥
यह निश्चय कर हे बुधजन! कैवल्य-प्राप्ति के लिए अहो ।
मुक्ति-मूल जिन-शरण गहो, क्यों अन्ध बने दुष्पथ भटको ॥
अन्वयार्थ : जो समस्त पदार्थों को अच्छी तरह जानने वाला है, वीतराग है और ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों से रहित है, उसी का वाक्य प्रमाण है; किन्तु उससे विपरीत जो अल्पज्ञानी रागी आदि हैं, उनका वचन असत्य होने से प्रमाण नहीं है - ऐसा मन में ठानकर, हे पण्डितों! केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए मुक्ति के देने वाले उन अर्हन्त का ही आश्रय करो । क्यों व्यर्थ अन्धे के समान जहाँ-तहाँ खोटे मार्ग में गिरते-पड़ते हो?