+ सर्वज्ञ के वचनों में सन्देह नहीं करने का उपदेश -
(वसन्ततिलका)
यः कल्पयेत्, किमपि सर्वविदोऽपि वाचि;
सन्दिह्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्ध्या ।
खे पत्रिणां, विचरतां सुदृशेक्षितानां;
संख्यां प्रति, प्रविदधाति स वादमन्ध: ॥125॥
ज्यों अन्ध होय पक्षी गिनने में, नेत्र सहित से करे विवाद ।
जिनवच में विपरीत कल्पना, कर करें मूढ़ त्यों विसंवाद ॥
अन्वयार्थ : जो मूढ़, सर्वज्ञ के वचन में भी सन्देह कर, अपनी बुद्धि से अपरमार्थभूत तत्त्वों की मनगढ़न्त कल्पना करता है, वह वैसा काम करता है कि जैसे कोई अन्धा मनुष्य, आकाश में जाते हुए पक्षियों की गिनती में अच्छे नेत्रवाले पुरुष के साथ विवाद करता है ।