+ दोनों प्रकार के श्रुत में कहा है - 'आत्मा ही ग्राह्य' -
(इन्द्रवज्रा)
उक्तं जिनैर्द्वादशभेदमङ्गं; श्रुतं ततो बाह्यमनन्तभेदम् ।
तस्मिन्नुपादेयतया चिदात्मा; तत: परं हेयतयाऽभ्यधायि ॥126॥
द्वादश भेद अंगश्रुत के हैं, अंगबाह्य के भेद अनन्त ।
उनमें उपादेय चिद् आतम, अन्य हेय कहते भगवन्त ॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र भगवान ने श्रुत के दो भेद कहे हैं - एक अंगश्रुत, दूसरा बाह्यश्रुत; उनमें अंगश्रुत, बारह प्रकार का कहा है और बाह्यश्रुत के अनन्त भेद कहे हैं, परन्तु उन दोनों श्रुतों में ज्ञान-दर्शनशाली आत्मा ही ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) कहा है और उससे जुदे समस्त पदार्थ हेय (त्यागने योग्य) कहे हैं ।