+ जिनेन्द्र के वचनों में संशय करना व्यर्थ -
(स्रग्धरा)
निश्चेतव्यो जिनेन्द्र:, तदतुलवचसां, गोचरेऽर्थे परोक्षे;
कार्यः सोऽपि प्रमाणं, वदत किमरेणाऽत्र कोलाहलेन ।
सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा;
भो भो भव्या! यतध्वं, दृगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाजः ॥128॥
निर्णय करो जिनेश्वर का अरु, उनसे कथित परोक्ष पदार्थ ।
के निर्णय में वही प्रामाणिक, अन्य सभी कोलाहल व्यर्थ ॥
अल्पज्ञान में जिन-वचनों से, स्वानुभूति कर बोध लहो ।
दर्श-ज्ञाननिधिमय निजात्म में, अहो भव्य! तुम प्रीति करो ॥
अन्वयार्थ : सर्व प्रथम 'जिनेन्द्र हैं'- ऐसा विश्वास अवश्य करना चाहिए । जो पदार्थ, सूक्ष्म तथा दूर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र ने उनका वर्णन अपनी दिव्यध्वनि में किया है तो वे भी अवश्य हैं - ऐसा मानना चाहिए । जिनेन्द्र अथवा जिनेन्द्र के वचन में व्यर्थ संशय करना ठीक नहीं क्योंकि इस काल में समस्त जीव अल्पज्ञान के धारी हैं; इसलिए जिन भगवान द्वारा कहे हुए सिद्धान्त मार्ग का अनुसरण करके स्वानुभव को प्राप्त कर, सदा प्रबुद्ध रहने वाले और अपनी आत्मा में प्रीति को भजने वाले हे भव्यजीवों! तुम सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूपी निधि में अवश्य यत्न करो ।