+ कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे... -
(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञो यद्भवकोटिभिः क्षपयति, स्वं कर्म तस्माद्बहु;
स्वीकुर्वन् कृतसंवरः स्थिरमना, ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात् ।
तीक्ष्णक्लेशहयाश्रितोऽपि हि पदं, नेष्टं तपः स्यन्दनो;
नेयं तन्नयति प्रभुं स्फुटतर,-ज्ञानैकसूतोज्झित: ॥130॥
कोटि भवों में अज्ञानी, जितने कर्मों को नष्ट करे ।
संवर में स्थिर-चित् ज्ञानी, क्षण भर में ही सब नष्ट करे ॥
जिस तप-रथ में क्लेश-अश्व है, ज्ञान-सारथी किन्तु नहीं ।
वह तप-रथ चेतन राजा को, शिवपुर पहुँचा सकें नहीं ॥
अन्वयार्थ : अज्ञानी जीव, कठोर तप आदि के द्वारा जितने कर्मों को करोड़ों वर्षों में क्षय करता है, उससे अधिक कर्मों को संवर का धारी ज्ञानी जीव, क्षणमात्र में स्थिर मन होकर, क्षय कर देता है, सो ठीक ही है क्योंकि जिस तपरूपी रथ में तीक्ष्ण क्लेशरूपी घोड़े लगे हुए हैं, किन्तु ज्ञानरूपी सारथी नहीं है तो वह तपरूपी रथ, कदापि आत्मारूपी प्रभु को मोक्ष-स्थान में नहीं ले जा सकता ।