
कर्माब्धौ तद्विचित्रोदयलहरिभर,-व्याकुले व्यापदुग्र-;
भ्राम्यन् नक्रादिकीर्णे, मृतिजननलसद्वाडवावर्तगर्ते ।
मुक्तः शक्त्या हताङ्ग:, प्रतिगति स पुान्, मज्जनोन्मज्जनाभ्या;
मप्राप्य ज्ञानपोतं, तदनुगतजडः, पारगामी कथं स्यात् ॥131॥
उदय लहर से व्याकुल है यह, कर्माेदधि जिसमें विचरे ।
तीव्र दु:खों के मगरमच्छ हैं, जन्म-मरण बड़वानल है ॥
ऊपर नीचे उतराता है जिसका तन अति क्षीण अरे ।
जब तक ज्ञान जहाज मिले नहीं कैसे भवदधि पार करें ॥
अन्वयार्थ : यह कर्म, एक प्रकार का बड़ा भारी समुद्र है क्योंकि
- जिस प्रकार समुद्र अनेक लहरों से व्याप्त है; उसी प्रकार यह कर्मरूपी समुद्र भी अनेक उदयरूप लहरों से व्याप्त है ।
- जिस प्रकार समुद्र में नाना प्रकार के भयंकर मगरमच्छादि हुआ करते हैं; उसी प्रकार इस कर्मरूपी समुद्र में भी इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि नाना प्रकार की आपत्तिरूप मगरमच्छादि विद्यमान हैं ।
- जिस प्रकार समुद्र में बड़वानल, भँवर के गड्ढे आदि हुआ करते हैं; उसी प्रकार इस कर्मरूपी समुद्र में भी नाना प्रकार के जन्म, मरण आदि बड़वानल, भँवर आदि रहते हैं;
इसलिए ऐसे भयंकर समुद्र में शक्तिहीन तथा अनादिकाल से सर्वत्र गोता खाता हुआ मनुष्य, जब तक ज्ञानरूपी अनुकूल जहाज को प्राप्त नहीं करेगा, तब तक उसे कदापि पार नहीं कर सकता ।