+ जिनवाणीरूपी दीपक से ही इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार -
(शार्दूलविक्रीडित)
शश्वन्मोहमहान्धकारकलिते, त्रैलोक्यसद्मन्यसौ;
जैनी वागमलप्रदीपकलिका, न स्याद्यदि द्योतिका ।
भावानामुपलब्धिरेव न भवेत्, सम्यक् तदिष्टेतर-;
प्राप्तित्यागकृते पुनस्तनुभृतां, दूरे मतिस्तादृशी ॥132॥
इस त्रैलोक्य भवन में शाश्वत, महा मोहतम व्याप्त अरे !
निर्मल दीप-शिखा जिनवाणी, का यदि नहीं प्रकाश मिले ॥
तो यह जीव समस्त वस्तु का, कैसे पाता सम्यग्ज्ञान? ।
कैसे होता इष्ट वस्तु का ग्रहण, अन्य का त्याग विधान ?
अन्वयार्थ : मोहरूपी गाढ़ अन्धकार से व्याप्त इस तीन लोकरूपी मकान में प्रकाश करनेवाला, यदि यह भगवान की वाणीरूपी दीपक न होता तो इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार तो दूर रहो, मनुष्यों को पदार्थों का ज्ञान भी नहीं होता ।