+ आत्मा ही परम धर्म -
(मन्दाक्रान्ता)
शान्ते कर्मण्युचितसकल,-क्षेत्रकालादिहेतौ;
लब्ध्वा स्वास्थ्यं, कथमपि लसद्योगमुद्राविशेषम् ।
आत्मा धर्मो, यदयमसुख,-स्फीतसंसारगर्तात्;
उद्धृत्य स्वं, सुखमयपदे, धारयत्याऽऽत्मनैव ॥133॥
योग्य क्षेत्र-कालादि हेतु से, कर्माेदय जब हो उपशान्त ।
आत्मध्यान मुद्रा धारण कर, निजस्वरूप में ले विश्राम ॥
दु:खमय इस संसार गर्त से, उत्तम सुख में पहुँचाता ।
अपने को अपने से आत्मा, अत: आत्मा धर्म कहा ॥
अन्वयार्थ : समस्त कर्मों के उपशम होने पर तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप योग्य सामग्री के मिलने पर, जब यह आत्मा ध्यान में लीन होकर, अपने स्वरूप का चिन्तवन करता है; उस समय नाना दुःखों के देने वाले संसाररूपी गड्ढे से छूट कर, अपने से ही अपने को उत्तम सुख में पहुँचाता है; इसलिए आत्मा के अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं है ।