
क्वात्मा तिष्ठति कीदृशः स कलितः, केनाऽत्र यस्येदृशी;
भ्रान्तिस्तत्र विकल्पसम्भृतमना, य: कोऽपि स ज्ञायताम् ।
किञ्चाऽन्यस्य कुतो मतिः परमियं, भ्रान्ताऽशुभात्कर्मणो;
नीत्वा नाशमुपायतस्तदखिलं, जानाति ज्ञाता प्रभु: ॥135॥
कहाँ आत्मा कैसा है यह, किसने जाना भली प्रकार ?
हो उत्पन्न विकल्प जिसे वह, ही आत्मा नहिं कोई अन्य ॥
जड़ में उठे न ऐसी शंका, अशुभोदय से भ्रान्ति सहित ।
भ्रान्ति नाश का कर उपाय यह, आत्मा जाने विश्व समस्त ॥
अन्वयार्थ : आत्मा को नहीं जानने वाला यदि कोई मनुष्य, किसी को पूछे कि आत्मा कहाँ रहता है? कैसा है? कहाँ है? कौन आत्मा को भलीभाँति जानता है? तो उसको यही कहना चाहिए कि जिसमें, कैसा है? कहाँ है? इत्यादि विकल्प उठ रहे हैं, वही आत्मा है, उससे अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है क्योंकि जड़ शरीर आदि में, कैसा है? कहाँ है? इत्यादि बुद्धि कदापि नहीं हो सकती । अशुभ कर्मों के कारण जीवों की बुद्धि भ्रान्त हो रही है, इसलिए जब यह आत्मा, उन कर्मों को मूल से नाश कर देता है, उस समय अपने आप ही यह अपने स्वरूप को तथा दूसरे पदार्थों को जानने लग जाता है; अत: आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानने के अभिलाषियों को तप आदि के द्वारा कर्मों के नाश करने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिए ।