
आत्मा मूर्तिविवर्जितोऽपि वपुषि, स्थित्वापि दुर्लक्षतां;
प्राप्तोऽपि स्फुरति स्फुटं यदहमित्युल्लेखतः सन्ततम् ।
तत्किं मुह्यत शासनादपि गुरो:,-भ्रान्तिः समुत्सृज्यता-;
मन्त: पश्यत निश्चलेन मनसा, तं तन्मुखाक्षव्रजा: ॥136॥
देहस्थित बिनमूर्ति आत्मा, अत: प्रत्यक्ष नहीं दिखता ।
लेकिन 'मैं' ऐसी प्रतीति से, स्पष्टतया जाना जाता॥
गुरु-वचनों से भ्रान्ति तजो, क्यों व्यर्थ बाह्य में मोह करो ।
मन-इन्द्रिय को निश्चल करके, अन्तर में आत्मा देखो ॥
अन्वयार्थ : इस आत्मा की कोई मूर्ति नहीं है तो भी यह शरीर के भीतर ही रहता है । इसको प्रत्यक्ष देखना अत्यन्त कठिन है तो भी 'अहं जानामि', 'अहं करोमि'...... अर्थात् 'मैं जानता हूँ', 'मैं करता हूँ'....., इत्यादि प्रतीतियों से यह स्पष्ट रीति से जाना जाता है, गुरु आदि के उपदेश से भी भलीभाँति इसका ज्ञान होता है; अतः हे भव्य जीवों! मन तथा इन्द्रियों को निश्चल कर, अपने अभ्यन्तर में इस आत्मा का अनुभव करो । क्यों व्यर्थ ही बाह्य पदार्थों में मोह करते हो?