+ आत्मा को अनेकान्तस्वरूप नहीं मानने पर अनेक आपत्तियाँ -
व्यापी नैव शरीर एव यदसा,-वात्मा स्फुरत्यन्वहं;
भूतानन्वयतो न भूतजनितो, ज्ञानी प्रकृत्या यतः ।
नित्ये वा क्षणिकेऽथवा न कथमप्यर्थक्रिया युज्यते;
तत्रैकत्वमपि प्रमाणदृढया, भेदप्रतीत्याऽऽहतम् ॥137॥
क्योंकि आत्मा रहे देह में, अत: नहीं जगव्यापी है ।
पञ्चभूत से हुआ नहीं, यह तो स्वभाव से ज्ञानी है ॥
नहीं सर्वथा नित्य, क्षणिक भी, अर्थक्रिया अन्यथा नहीं ।
दृढ़ प्रमाण से भेदप्रतीति, अत: सर्वथा एक नहीं ॥
अन्वयार्थ : यह आत्मा, निरन्तर शरीर में ही रहता हुआ मालूम पड़ता है, इसलिए वह व्यापक नहीं है । स्वभाव से ही यह ज्ञानी (ज्ञाता) है, इसलिए यह पृथ्वी-जल-अग्नि आदि पाँच भूतों (पदार्थों) से भी पैदा हुआ नहीं मालूम होता । यह सर्वथा नित्य भी नहीं क्योंकि नित्य में किसी प्रकार का परिणाम नहीं हो सकता तथा आत्मा के तो क्रोधादि परिणाम भलीभाँति अनुभव में आते हैं । यह आत्मा, सर्वथा क्षणिक भी नहीं हो सकता क्योंकि प्रथम क्षण में उत्पन्न होकर यदि यह द्वितीय क्षण में नष्ट हो जाएगा तो किसी प्रकार की क्रिया इसमें नहीं हो सकती । आत्मा एकस्वरूप भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि कभी क्रोधी, कभी लोभी इत्यादि अनेक पर्यायें आत्मा की मालूम होती हैं ।