+ आत्मा ही शुभाशुभकर्मों का कर्ता एवं उनके फल का भोक्ता -
कुर्यात्कर्म शुभाशुभं स्वयमसौ, भुक्ते स्वयं तत्फलं;
सातासातगतानुभूतिकलना,-दात्मा न चाऽन्यादृश: ।
चिद्रूप: स्थितिजन्मभङ्गकलितः, कर्मावृतः संसृतौ;
मुक्तौ ज्ञानदृगेकमूर्तिरमल:,त्रैलोक्यचूडामणिः ॥138॥
कर्म शुभाशुभ स्वयं करे यह, स्वयं भोगता उनका फल ।
उदय असाता-साता में यह, किन्तु न कर्ता-भोक्ता अन्य ॥
ध्रौव्योत्पाद-विनाशमयी, चिद्रूप-कर्म-संग-संसृति में ।
किन्तु ज्ञान-दृग मूर्ति कर्म बिन, लोक-शिखर पर मुक्ति में ॥
अन्वयार्थ : यह आत्मा, शुभ-अशुभ कर्मों को निरन्तर करता रहता है । साता-असाता वेदनीयकर्म के उदय से स्वयं उनका फल भोगता है, किन्तु अन्य कोई कर्ता-भोक्ता नहीं । यह आत्मा, सदा चैतन्यस्वरूप है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनों धर्मों से सहित है और संसारावस्था में यह कर्मों से आवृत्त है, परन्तु मोक्ष अवस्था में इसके साथ किसी कर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है । यह आत्मा, सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान का धारक है और तीनों लोक के शिखर पर विराजता है ।