
आत्मानमेवमधिगम्य नयप्रमाण-;
निक्षेपकादिभिरभिश्रयतैकचित्ताः ।
भव्या यदीच्छत भवार्णवमुत्तरीतु-;
मुत्तुङ्गमोहमकरोग्रतरं गभीरम् ॥139॥
मोह-मगरयुत गहन भवोदधि, से यदि तुम तिरना चाहो ।
नय-प्रमाण-निक्षेप आदि से, मात्र आत्मा को जानो ॥
अन्वयार्थ : हे भव्य जीवों! यदि तुम मोहरूपी मगर से सहित गम्भीर संसाररूपी समुद्र को तिरने की इच्छा करते हो तो एकचित्त होकर, नय-प्रमाण तथा नाम-स्थापना आदि के द्वारा आत्मा को भलीभाँति जानो और उसी का आश्रय करो ।