+ मोक्षसुख के अभिलाषी को राग-द्वेष का त्याग करना आवश्यक -
(मालिनी)
भवरिपुरिह तावद् दुःखदो यावदात्मन्;
तव विनिहितधामा कर्मसंश्लेषदोषः ।
स भवति किल रागद्वेषहेतोस्तदादौ;
झटिति शिवसुखार्थी यत्नतस्तौ जहीहि ॥140॥
ज्ञान-तेज नाशक कर्मों का, बन्धन जग में दु:ख देता ।
राग-द्वेष से कर्म-बन्ध है, सुख के लिए इन्हें तजना ॥
अन्वयार्थ : अरे आत्मा! जब तक तेरे साथ समस्त तेज (चैतन्य) को मूल से उड़ाने वाला कर्मों का बन्ध लगा हुआ है; तब तक तुझको यह संसाररूपी बैरी, नाना प्रकार के दुःखों को देने वाला है; वह संसाररूपी बैरी, राग-द्वेष से उत्पन्न होता है; इसलिए यदि तू मोक्ष-सुख का अभिलाषी है तो शीघ्र ही राग-द्वेष का त्याग कर, जिससे तेरी आत्मा के साथ कर्म का बन्ध नही रहे तथा तुझे संसार के दुःख न भोगना पड़ें ।