+ अपने स्वरूप से दूर नहीं रहने का उपदेश -
(स्रग्धरा)
लोकस्य त्वं न कश्चित्, न स तव यदिह, स्वार्जितं भुज्यते कः;
सम्बन्धस्तेन सार्धं, तदसति सति वा, तत्र कौ रोषतोषौ ।
कायेऽप्येवं जडत्वात्, तदनुगतसुखा-दावपि ध्वंसभावा-;
देवं निश्चित्य हंस, स्वबलमनुसर, स्थायि मा पश्य पार्श्व् ॥141॥
तुम न किसी के कोई न तेरा, स्वयं शुभाशुभ कर्म करे ।
अत: वृथा सम्बन्ध अन्य से, रोष-तोष भी व्यर्थ अरे !
तन जड़, क्षणभङ्गुर इन्द्रिय-सुख, राग-द्वेष इनमें न करो ।
अत: स्व-बल का आराधन कर नहीं पड़ौसी को देखो ॥
अन्वयार्थ : भो आत्मन् ! न तो तू लोक का है और न तेरा ही लोक है, तू ही शुभ-अशुभ को उत्पन्न करता है और तू ही उसको भोगता है; अत: इस लोक के साथ सम्बन्ध करना वृथा है । लोक न होने पर दुःख तथा लोक के होने पर सन्तोष करना भी व्यर्थ है । शरीर तो जड़ है, इसलिए इसके साथ क्रोध या सन्तोष करना भी बिना प्रयोजन का है ।
इन्द्रिय आदि पदार्थों से उत्पन्न हुआ सुख विनाशीक है, इसलिए इसके साथ रोष या सन्तोष मानना निष्प्रयोजन है - ऐसा भलीभाँति विचार कर, तुझे अपने बल जो अनन्त ज्ञानादिक हैं, उनकी आराधना करनी चाहिए और तुझे अपने स्वरूप से दूर नहीं रहना चाहिए (अपने अन्तरंग मे प्रवेश कर), तुझे समस्त परिग्रह का त्याग कर देना चाहिए ।