+ अरे मन! स्त्री आदि का राग छोड़ कर, अपने अन्तरंग में प्रवेश कर! -
यद् दृष्टं बहिरंगनादिषु चिरं, तत्राऽनुरागोऽभवत्;
भ्रान्त्या भूरि तथापि ताम्यसि ततो, मुक्त्वा तदन्तर्विश ।
चेतस्तत्र गुरोः प्रबोधवसते:, किञ्चित्तदाकर्ण्यते;
प्राप्ते यत्र समस्तदुःखविरमात्, लभ्येत नित्यं सुखम्॥143॥
बाह्य वस्तुओं को ही देखा, अत: छोड़ उनसे अनुराग ।
उससे ही तू दु:खी हुआ है, छोड़ दे सबसे अब राग ॥
ज्ञानोदधि गुरु के वचनों को, सुन कर निज अन्तर में देख ।
जिससे सब दु:ख हों विनष्ट अरु, नित्य मोक्षसुख तुझे मिले ॥
अन्वयार्थ : अरे मन! चिर काल से तूने बाह्य स्त्री आदि पदार्थों को देखा है; इसलिए भ्रम से तुझे उनमें अनुराग होता है, उसी अनुराग से सदा तू दुःखित होता है; अत: स्त्री आदि से राग छोड़ कर, तू अपने अन्तरंग में प्रवेश कर । ज्ञान के सागर श्री परम गुरु से ऐसा कोई उपदेश सुन, जिससे तेरे समस्त दुःखों का नाश हो जाए तथा तुझे अविनाशी सुख की प्राप्ति हो ।