
किमाल-कोलाहलै,-रमल-बोध-सम्पन्निधेः;
समस्ति यदि कौतुकं, किल तवात्मनो दर्शने ।
निरुद्धसकलेन्द्रियो, रहसि मुक्तसंगग्रह:;
कियन्त्यपि दिनान्यतः, स्थिरमना भवान् पश्यतु ॥144॥
निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्म के, दर्शन का यदि कौतुक हो ।
परिग्रह तज इन्द्रिय-निग्रह कर, थिर चित् हो एकान्त वसो ॥
अन्वयार्थ : यदि तू समस्त निर्मल ज्ञान के धारी आत्मा को देखने की इच्छा करता है तो तुझे समस्त स्पर्शनादि इन्द्रियों को रोक कर, समस्त प्रकार के परिग्रह से मुक्त होकर, कुछ दिन एकान्त में बैठ कर तथा स्थिर-मन होकर, उसको देखना चाहिए; व्यर्थ कोलाहल करने में क्या रखा है ?