+ जीव और मन का परस्पर आत्मकल्याणकारी संवाद -
(शार्दूलविक्रीडित)
भो चेतः किमु जीव तिष्ठसि कथं, चिन्तास्थितं सा कुतो;
रागद्वेषवशात्तयोः परिचय:, कस्माच्च जातस्तव ।
इष्टाऽनिष्टसमागमादिति यदि, श्वभ्रं तदावां गतौ:;
नो चेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरा,-दिष्टादिसंकल्पनम् ॥145॥
जीव कहे 'रे मन! कैसे हो' 'चिन्ता से मैं दु:खी हुआ' ।
'चिन्ता कैसे?' 'राग-द्वेष से' 'कैसे परिचय उनसे हा' !
'इष्ट-अनिष्ट समागम से ही राग-द्वेष का परिचय हो' ।
नरक न जाना हो दोनों को, तो पर से सम्बन्ध तजो ॥
अन्वयार्थ : जीव - 'रे मन! तू कैसे रहता है?'
मन - 'मैं सदा चिन्ता में व्यग्र रहता हूँ ।'
जीव - 'तुझे चिन्ता क्यों है?'
मन - 'राग-द्वेष के कारण मुझे चिन्ता है ।'
जीव - 'तेरा इनके साथ परिचय कैसे हुआ?'
मन - 'भली-बुरी वस्तुओं के सम्बन्ध से राग-द्वेष का परिचय हुआ है ।'
जीव - 'हे मन! यदि ऐसी बात है तो शीघ्र ही भली-बुरी वस्तुओं के सम्बन्ध को छोड़ो । नहीं तो हम दोनों को नरक में जाना पड़ेगा ।'