
ज्ञानज्योतिरुदेति मोहतमसो, भेदः समुत्पद्यते;
सानन्दा कृतकृत्यता च सहसा, स्वान्ते समुन्मीलति ।
यस्यैकस्मृतिमात्रतोऽपि भगवान् अत्रैव देहान्तरे;
देवस्तिष्ठति मृग्यतां सरभसात् अन्यत्र किं धावत ॥146॥
ज्ञान-ज्योति का उदय, मोहतम विघटे, जिसके सुमिरन से ।
अन्तर में आनन्द उछले, कृतकृत्यपना सहसा भासे ॥
ऐसा वह भगवान आत्मा, तन-मन्दिर में रहा विराज ।
व्यर्थ खोजते क्यों बाहर में, अन्तर में ही देखो आज ॥
अन्वयार्थ : जिस एक आत्मा के स्मरण मात्र से सम्यग्ज्ञानरूपी तेज का उदय होता है, मोहरूपी अन्धकार दूर हो जाता है, चित्त में नाना प्रकार का आनन्द होता है तथा चित्त में कृतकृत्यता भी उदित हो जाती है; ऐसी अनन्त शक्ति का धारक भगवान् आत्मा, इसी शरीर में निवास करता है, उसको ढूँढो; व्यर्थ क्यों दूसरी जगह अज्ञानी होकर फिरते हो?