+ बाह्य पदार्थों में बुद्धि दौड़ाने से ही दु:खों की परम्परा -
जीवाजीव-विचित्र-वस्तु-विविधाऽऽकारर्द्धि-रूपादयो;
रागद्वेषकृतोऽत्र मोहवशतो, दृष्टाः श्रुताः सेविताः ।
जातास्ते दृढबन्धनं चिरमतो, दुःखं तवाऽऽत्मन्निदं;
जानात्येव तथापि किं बहिरसा,-वद्यापि धीर्धावति ॥147॥
जीव-अजीव विचित्र वस्तुएँ, उनके रूपादिक आकार ।
मोहोदयवश राग-द्वेष, होते हैं उनसे बारम्बार ॥
देखा सुना और सेया है, उनसे तो चिर दु:खी हुआ ।
जान रहा पर बुद्धि आज भी, पर में दौड़े अचरज हा !
अन्वयार्थ : अरे जीव! इस संसार में चेतन-अचेतनस्वरूप नाना प्रकार के पदार्थ, नाना प्रकार के आकार, भाँति-भाँति की सम्पदा तथा रूप रस आदि सभी, मोह के कारण से रागद्वेष को करने वाले हैं, वे मोह के कारण ही देखे गये हैं, सुने गये हैं तथा सेवन किये गये हैं और इसी कारण मोह के कारण चिर काल तक वे सभी पदार्थ, तेरे लिए दृढ़ बन्धनरूप हुए हैं । दृढ़ बन्धन से ही तुझे नाना प्रकार के दुःख भोगने पड़े हैं - ऐसा भलीभाँति जानते हुए भी तेरी बुद्धि बाह्य पदार्थों मे ही दौडती है, यह बड़े आश्चर्य की बात है !