
भिन्नोऽहं वपुषो बहिर्मलकृता,-न्नानाविकल्पौघतः;
शब्दादेश्च चिदेकमूर्तिरमलः, शान्तः सदानन्दभाक् ।
इत्यास्था स्थिरचेतसो दृढतरं, साम्यादनारम्भिणः;
संसाराद्भयमस्ति किं यदि तदप्यन्यत्र कः प्रत्ययः ॥148॥
मल से बनी देह से एवं, सब विकल्प वाणी से भिन्न ।
निर्मल चेतन मुक्ति शान्तमय, उछलें नित आनन्द तरंग ॥
जिसकी दृढ़ श्रद्धा दृढ़तर चित्, समता से आरम्भ-विहीन ।
फिर भी यदि भय रहे जगत् में, अन्य कहीं भयमुक्त नहीं ॥
अन्वयार्थ : नाना प्रकार के विष्टा-मूत्र आदि मल के घर इस शरीर से मैं भिन्न हूँ । मन में उठने वाले नाना प्रकार के विकल्पों से भी मैं भिन्न हूँ । शब्द-रस आदि से भी मैं भिन्न हूँ । मेरी एक चैतन्यमयी मूर्ति है । मैं समस्त प्रकार के मल से रहित हूँ । क्रोधादि के अभाव से मैं शान्त हूँ । सदाकाल आनन्द का भजने वाला हूँ । इस प्रकार का जिसके मन में मजबूत श्रद्धान है तथा समता का धारी होने से जिसका समस्त प्रकार का आरम्भ छूट गया है - ऐसे मनुष्य को किसी प्रकार संसार का भय नहीं हो सकता और जब उसको संसार ही भय का करने वाला नहीं, तब उसको कोई अन्य वस्तु, भय की करने वाली नहीं हो सकती ।