
किं लोकेन किमाश्रयेण किमथ, द्रव्येण कायेन किं;
किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः, किं तैर्विकल्पै: परैः ।
सर्वे पुद्गलपर्यया बत परे, त्वत्त: प्रमत्तो भवन्;
नात्मन्नेभिरभिश्रयस्यतितरा,-मालेन किं बन्धनम् ॥149॥
तुझे लोक से तन से या, द्रव्यों से कहो प्रयोजन क्या ?
वाणी-इन्द्रिय-प्राणों अशुभ, विकल्पों से भी मतलब क्या ?
ये पुद्गल पर्यायें तुझसे, भिन्न प्रमादी क्यों इनमें ?
रे आत्मन्! क्यों इनके द्वारा व्यर्थ बँधे तू कर्मों से ॥
अन्वयार्थ : हे जीव! न तो तुझे लोक से प्रयोजन है, न लोक के आश्रय से प्रयोजन है, न तुझे द्रव्य से प्रयोजन है, न वाणी से प्रयोजन है, न तुझे स्पर्शनादि इन्द्रियों से प्रयोजन है तथा न तुझे खोटे विकल्पों से प्रयोजन है क्योंकि ये समस्त, पुद्गलद्रव्य की पर्यायें हैं और तू चैतन्यस्वरूप है, इसलिए ये तेरे स्वरूप से सर्वथा जुदे ही हैं; अतः इन वस्तुओं में प्रमाद करता हुआ, तू क्यों वृथा दृढ़ बन्धन को बाँधता है? अर्थात् लोक आदि से ममता करने से तू बँधेगा ही, छूटेगा नहीं ।